Saturday, February 1, 2014

आम ही आम

राजनीति के बाजार में "आम ही आम" की sale लगी है। कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:

सर्दियों में आम की ऐसी न देखी कभी डिमांड,
अब तो सभी को चाहिए बस आम ही आम।
अमरुद, अंगूर और संतरे चाहे हो कोई सा नाम,
पर सभी को है पसंद तो केवल वो है आम।

गाड़ी, बंगला और लाल बत्ती का क्या है अब काम,

खास को भी बनना है सिर्फ आदमी आम।
पर बहुतों का हो गया है ये देखना एक काम ,
कहीं कोई खास न बन जाये जो कभी था आम।

राजनीति तो भैया है अपराधी और भ्रष्टचारी का काम,

कैसे कोई आ गया इसमें आदमी ये आम।
करते रहो नए नए दुष्प्रचार सुबह और शाम,
ढूँढो नए उपाय कि कैसे करें एक दूसरे को बदनाम।
भूल गए सब भ्रष्टाचार और घोटालों के कांड,
अब तो करना है एक दूसरे का काम तमाम।

यारों देश के लिए कुछ तो अच्छा भी करो काम,
कयों नहीं सब मिल के बनाते हैं इसका फिर वो नाम।
और अपनी तो एक चाहत बस इतनी सी है राम,
ना हो कोई खास और ना हो कोई आम।।

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